उन्मुक्त गगन में उन्मुक्त उड़ानें भरने को , अंतर्मन विहग मचलता है

शीर्षक – उन्मुक्त गगन में
उन्मुक्त उड़ानें भरने को ,
अंतर्मन विहग मचलता है ||
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तोड़ बेडियो को सारे,
अंबर छूने को उछलता है ||
छोड़- भ्रम के अंधेरे को जैसे,
पथिक सन्मार्ग से चलता है||
एक अकेला ही पथ पर देखो,
सदैव मशाल सा जलता है ||
आत्मविश्वास सच की ताकत,
हरकदम साथ ही चलता है||
सबका अंतर्मन शीतल कर ,
हिम सा स्वयं पिघलता है ||
विरले ही होते हैं जो सबके हित,
जीवन के सार्थकता में ढलता है||
समय-समय पर लोगों का,
सोच स्वभाव बदलता है||
धरती पर देव दूतों का,
अवतरण काल तक चलता है||
स्वरचित =सुप्रभा पाठक
यू.पी वाराणसी