05/07/2025
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हिंदुस्तान में दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारने के मामले क्यों हो रहे हैं?

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हिंदुस्तान आजाद हुए इतने साल हो गए साथ ही भारतीय संविधान ने दलित भाइयों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए समानता का अधिकार दिया है फिर भी अाज के इस आधुनिक युग में दलितों की घुड़चढ़ी निकलने घोड़े पर बैठने पगड़ी न पहनने देने जैसी घटनाएं हो रही हैं अधिकतर मामलों में ग्रामीण क्षेत्रों के शिक्षित युवा, प्रौढ़ और बुजुर्ग वर्ग क्यों हिंसा का रास्ता अपनाते हैं आइए आज इस विषय पर मंथन करते हैं।

‘असल में ये प्रतीकों की लड़ाई है जो समाज ही नहीं बल्कि सरकार, प्रशासन और यहां तक कि निजी दफ़्तरों में भी देखी जा सकती है. खुद को उच्च भाव से देखने वाला कोई भी व्यक्ति अपने से निचले स्थान वाले किसी व्यक्ति को सांकेतिक तौर पर भी अपनी बराबरी में आते देखना पसंद नहीं करता, फिर चाहे वो कुछ पल के लिए ही क्यों न हो.’ ‘चूंकि इस जानवर (घोड़ा/घोड़ी) का ऐतिहासिक संबंध राजशाही से जुड़ा है इसलिए इस पर बैठने के कई सारे संकेत निकलते हैं.

पहला तो शासकीय है ही. लेकिन घोड़ी रखना या लाना संपन्नता का द्योतक भी है. और चूंकि उसे चलाने के लिए विद्वता की भी जरूरत होती है. इसलिए जब-जब कोई दलित घोड़ी या घोड़े पर सवार होता है तो वह जाने-अनजाने कई तरह के सामाजिक दुराग्रहों पर एक साथ कुठाराघात कर रहा होता है. यह बात कइयों को बर्दाश्त नहीं होती.’

(1), दलित समुदाय के लोग पहले घुड़चढ़ी की रस्म नहीं करते थे. न सिर्फ सवर्ण बल्कि दलित भी मानते थे कि घुड़चढ़ी सवर्णों की रस्म है लेकिन अब दलित इस भेद को नहीं मान रहे हैं. दलित दूल्हे भी घोड़ी पर सवार होने लगे हैं. यह अपने से ऊपर वाली जाति के जैसा बनने या दिखने की कोशिश है, इसे लोकतंत्र का भी असर कहा जा सकता है, जिसने दलितों में भी समानता का भाव और आत्मसम्मान पैदा कर दिया है. यह प्रक्रिया पहले पिछड़ी जातियों में हुई होगी, जो अब चलकर दलितों तक पहुंची है.

(2), सवर्ण यानी ऊपर मानी गई जातियां इसे सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं. उनके हिसाब से दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना एक सवर्ण विशेषाधिकार है और इसे कोई और नहीं ले सकता.

वे इस बदलाव को रोकने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं. हिंसा उनमें से एक तरीका है और इसके लिए वे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक के लिए तैयार हैं. आधुनिकता और लोकतंत्र के बावजूद सवर्णों में यह चेतना नहीं आ रही है कि सभी नागरिक समान हैं.

कई दशक पहले पिछड़ी जातियों के लोगों ने जब बिहार में जनेऊ पहनने का अभियान चलाया था, तो ऐसी ही हिंसक प्रतिक्रिया हुई थी और कई लोग मारे गए थे. दलितों के मंदिर घुसने की कोशिश अब भी कई जगहों पर हिंसक प्रतिक्रिया को जन्म देती है.

आधुनिकता के साथ पिछड़ापन: यह समझने की कोशिश की जाए कि आधुनिकता और लोकतंत्र के इतने सालों के अनुभव के बाद भी कुछ समुदाय सभ्य क्यों नहीं बन पाए रहे हैं. ऐसी कौन सी चीज है, जिसकी वजह से सवर्ण यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वे भी बाकी लोगों की तरह इंसान हैं और उन्हें कोई जन्मगत विशेषाधिकार हासिल नहीं हैं और न ही कुछ लोग सिर्फ जन्म की वजह से नीच हैं. अगर पुराने दौर में उन्हें कुछ विशेषाधिकार हासिल थे भी तो लोकतंत्र में उन्हें यह सुविधा हासिल नहीं है.

कहीं न कहीं आज भी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों की सोच विकृत है और यही वजह है आज भी हिंदू समाज एक नहीं है हम भिन्न भिन्न जाति संप्रदाय में बंटे हुए हैं आज भी यदि आप किसी से अपना परिचय पूछो तो वह व्यक्ति अपने नाम के साथ अपनी जाति पहले बताएगा जबकि होना यह चाहिए कि सबसे पहले हम सभी हिंदुस्तानी हैं फिर हिंदू हैं और तत्पश्चात जाति का वर्गीकरण आता है

आज भी राजनैतिक दल बिखरे हुए जातियों में बंटे हुए हिंदू समाज की इसी कमी का फायदा उठा रहे हैं और में समझता हूं हिंदुओं को एक होना ही होगा और अपने दलित हिंदू भाइयों को मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करना होगा आज देश बदल रहा है और में समझता हूं हमको राजनैतिक विचारधारा दलगत राजनीति और संकीर्ण सवर्ण मानसिकता का परित्याग करके यह दलित और सवर्ण वाली खाई को पाटने की आवश्यकता है दलित हिंदुओं को आगे बढ़कर गले लगाने की आवश्यकता है सबसे पहले हम हिंदू हैं और हमको एकता के सूत्र में रहने की आवश्यकता है

राकेश वशिष्ठ, स्तंभ लेखक आरजे न्यूज राजस्थान
+919413141336
rakeshvashishtha25@gmail.com

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