परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।* **धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।८।।*

| चतुर्थ अध्याय ||*

*|| यथार्थगीता से साभार प्रस्तुत ||*

आइडियल इंडिया न्यूज़ ll
*लवकुश पांडेय कुशीनगर

 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।*
**धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।८।।*
अर्जुन! *साधूनां परित्राणाय-* परमसाध्य एकमात्र परमात्मा है, जिसे साध लेने पर कुछ भी साधना शेष नहीं रह जाता। उस साध्य में प्रवेश दिलानेवाले विवेक, वैराग्य, शम, दम इत्यादि दैवी संपद् को निर्विघ्न प्रवाहित करने के लिए तथा *दुष्कृताम्-* जिनसे दूषित कार्य रूप लेते हैं उन काम, क्रोध, राग, द्वेषादि विजातीय प्रवृत्तियों को समूल नष्ट करने के लिए तथा धर्म को भली प्रकार स्थिर करने के लिए मैं युग- युग में प्रकट होता हूं।
युग का तात्पर्य सत्ययुग, त्रेता या द्वापर नहीं, युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मनुष्यों के स्वभाव पर है। युगधर्म सदैव रहते हैं। मानस में संकेत है- *नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदयँ राम माया के प्रेरे।। (रामचरितमानस, ७/१०३ ख/१)*
युगधर्म सभी के हृदय में नित्य होते रहते हैं। अविद्या से नहीं बल्कि विद्या से, राममाया की प्रेरणा से हृदय में होते हैं। जिसे प्रस्तुत श्लोक में आत्ममाया कहा गया है, वही है राममाया। हृदय में राम की स्थिति दिला देनेवाली राम से प्रेरित है वह विद्या। कैसे समझा जाए कि अब कौन- सा युग कार्य कर रहा है, तो *सुद्ध सत्व समता बिज्ञाना, कृत प्रभाव मन जाना।। (रामचरितमानस, ७/१०३ख/२)* जब ह्रदय में शुद्ध सत्वगुण ही कार्यरत हो, राजस तथा तामस दोनों गुण शांत हो जायँ, विशेषताएं समाप्त हो गई हों, जिसका किसी से द्वेष न हो, विज्ञान हो अर्थात् इष्ट से निर्देशन लेने और उस पर टिकने की क्षमता हो, मन में प्रसन्नता का पूर्ण संचार हो- जब ऐसी योग्यता आ जाय तो सतयुग में प्रवेश मिल गया। इसी प्रकार दो अन्य युगों का वर्णन किया और अंत में- *तामस बहुत रजोगुन थोरा, कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा।। (रामचरितमानस, ७/१०३ख/५)*

तामसी गुण भरपूर हो, किंचित राजसी गुण भी उसमें हो, चारों ओर वैर और विरोध हो तो ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है। जब तामसी गुण कार्य करता है तो मनुष्य में आलस्य, निद्रा, प्रमाद का बाहुल्य होता है। वह कर्तव्य जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीं हो सकता, निषिद्ध कर्म जानते हुए भी उससे निवृत नहीं हो सकता। इस प्रकार युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मनुष्यों की आंतरिक योग्यता पर निर्भर है। किसी ने इन्हीं योग्यताओं को चार युग कहा है, तो कोई इन्हें ही चार वर्ण का नाम देता है, तो कोई इन्हे ही अतिउत्तम, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट चार श्रेणी के साधक कहकर संबोधित करता है। प्रत्येक युग में इष्ट साथ देते हैं। हां, उच्चश्रेणी में अनुकूलता की भरपूरता प्रतीत होती है, निम्न युगों में सहयोग क्षीण प्रतीत होता है।
संक्षेप में, श्रीकृष्ण कहते हैं- साध्य वस्तु दिलानेवाले विवेक, वैराग्य इत्यादि को निर्विघ्नं प्रवाहित करने के लिए तथा दूषण के कारक काम- क्रोध, राग- द्वेष इत्यादि का पूर्ण विनाश करने के लिए, परमधर्म परमात्मा में स्थिर रखने के लिए मैं युग- युग में अर्थात् हर श्रेणी में प्रकट होता हूं- बशर्ते की ग्लानि हो। जब तक इष्ट समर्थन न दें, तब तक आप समझ ही नहीं सकेंगे कि विकारों का विनाश हुआ अथवा अभी कितना शेष है? प्रवेश से पराकाष्ठापर्यंत इष्ट हर श्रेणी में हर योग्यता के साथ रहते हैं। उनका प्राकट्य अनुरागी के हृदय में होता है। भगवान प्रकट होते हैं, तब तो सभी दर्शन करते होंगे? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं, *•••••• क्रमशः जारी-*
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*परम पूज्य सद्गुरु श्री द्वारा विरचित यथार्थगीता से लोकहित में साभार प्रस्तुत

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